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लोबोटॉमी: एक ऐसी वैज्ञानिक तकनीक जिसमे इंसान के दिमाग में कील ठोककर इलाज़ किया जाता था

कल्पना कीजिए — एक डॉक्टर आपके घर आए, आपको इलाज के नाम पर बेहोश करे, और फिर आपके दिमाग के अंदर एक कील ठोक दे। डरावना लगता है ना? लेकिन बीसवीं सदी के एक दौर में यह एक आम चिकित्सा प्रक्रिया थी, जिसे कहा जाता है लोबोटॉमी (Lobotomy)

इस तकनीक का मकसद था मानसिक बीमारियों को “ठीक” करना। लेकिन इसके परिणाम इतने भयावह और विवादास्पद थे कि इसे एक समय में “वैज्ञानिक पागलपन” भी कहा गया।

सन् 1935 में पुर्तगाल के न्यूरोलॉजिस्ट एंटोनियो ईगास मोनिज़ ने पहली बार लोबोटॉमी की प्रक्रिया अपनाई। उन्होंने दावा किया कि दिमाग के फ्रंटल लोब को बाकी हिस्सों से काटने से डिप्रेशन, स्किज़ोफ्रेनिया जैसी बीमारियाँ ठीक हो सकती हैं। इस शोध के लिए उन्हें 1949 में नोबेल पुरस्कार भी मिला।

लेकिन इसी विचार को अमेरिका ले गए डॉ. वाल्टर फ्रीमैन, जिन्होंने इस तकनीक को ऐसा रूप दिया कि वह किसी भी सामान्य डॉक्टर द्वारा सिर्फ 10 मिनट में की जा सके।


“आइस पिक लोबोटॉमी”: 

फ्रीमैन का तरीका खौफनाक था। वे मरीज की आंखों के पास से एक आइस-पिक जैसी छड़ी (ice pick) घुसाते और उसे हथौड़े से मार कर दिमाग के उस हिस्से तक पहुँचते, जो भावनाओं और व्यवहार को नियंत्रित करता है। फिर वह छड़ी घुमाकर उन नर्व कनेक्शनों को काट देते।

यह प्रक्रिया इतनी तेज और “सस्ती” थी कि यह अमेरिका में मानसिक रोगियों के इलाज के लिए आम बन गई। अकेले डॉ. फ्रीमैन ने अपने करियर में 3000 से अधिक लोबोटॉमी कीं, जिनमें 14 साल के बच्चों तक को शामिल किया गया।


सफलता या आपदा?

फ्रीमैन दावा करते थे कि लोबोटॉमी से मरीज शांत और “अनुकूल” बन जाते हैं। कुछ मामलों में यह सच भी था। लेकिन सच्चाई यह भी है कि:

  • कई मरीजों की मृत्यु हो गई।

  • बहुतों की व्यक्तित्व क्षमता समाप्त हो गई — वे ज़िंदा तो थे, पर भावनाहीन, कमजोर और निर्जीव से।

  • बहुत से मरीज अपाहिज हो गए, बोलने या चलने फिरने लायक नहीं रहे।

एक केस में तो एक 14 साल की बच्ची, हावर्ड डल, जिसे केवल अपनी सौतेली मां से झगड़ों के कारण पागल घोषित कर दिया गया था, पर यह सर्जरी कर दी गई। उसका स्वभाव हमेशा के लिए बदल गया।


जब मरीज ने अपने डॉक्टर को मार डाला

लोबोटॉमी के जनक माने जाने वाले एंटोनियो मोनिज़ पर खुद एक मरीज ने हमला किया और उन्हें अपाहिज बना डाला। यह घटना एक प्रतीक बन गई—कि जब इंसानी दिमाग से छेड़छाड़ की जाती है, तो नतीजे बेहद खतरनाक हो सकते हैं।


आखिर इतना जोखिम क्यों?

वैज्ञानिकों का मानना था कि दिमाग के फ्रंटल लोब में ही हमारी भावनाएँ, निर्णय लेने की क्षमता, और सामाजिक व्यवहार होता है। तो विचार यह था: अगर हम उन नर्व कनेक्शनों को काट दें जो दर्द या डिप्रेशन से जुड़े हैं, तो मरीज को राहत मिल सकती है।

सुनने में तर्कसंगत लगता है, लेकिन हकीकत में ये ऑपरेशन इंसान को एक “खाली खोल” बना देते थे।


अंत की शुरुआत

1950 के दशक में जब साइकोफार्मास्युटिकल दवाएँ (जैसे ऐंटीडिप्रेसेंट्स) आईं, तो लोबोटॉमी का चलन कम होने लगा। डॉक्टरों और वैज्ञानिकों को धीरे-धीरे एहसास हुआ कि यह प्रक्रिया ज़्यादा नुकसानदेह है, और इसे बंद कर दिया गया।

आज लोबोटॉमी को मानवाधिकार हनन और वैज्ञानिक अतिरेक का उदाहरण माना जाता है।

लोबोटॉमी की कहानी एक चेतावनी है—कि जब विज्ञान नैतिकता से भटकता है, तो उसके परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। हर तकनीक, चाहे वह कितनी ही उन्नत क्यों न हो, इंसानी गरिमा और समझदारी के बिना अधूरी है।

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