
हर साल अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के ग्रामीण इलाकों में हजारों लोग साँपों के डसने से मर जाते हैं। यह स्नेकबाइट एनवेनमिंग — यानी ज़हरीले साँप के काटने से शरीर में ज़हर फैल जाना — दुनिया की सबसे घातक लेकिन सबसे उपेक्षित बीमारियों में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इसे 21 “Neglected Tropical Diseases” (NTDs) में शामिल किया है।
इसी बीच, डेनमार्क की DTU Bioengineering लैब से एक ऐसी खोज सामने आई है जो साँप के ज़हर के इलाज में क्रांति ला सकती है।
नैनोबॉडी तकनीक
अब तक बनने वाले एंटी-वेनम घोड़ों जैसे बड़े जानवरों के खून से एंटीबॉडी निकालकर तैयार किए जाते थे। यह प्रक्रिया न केवल जटिल और समय लेने वाली थी, बल्कि इससे बने एंटी-वेनम की गुणवत्ता असमान रहती थी और मरीजों में साइड इफेक्ट्स का खतरा भी रहता था।
लेकिन एंड्रियास हॉगार्ड लॉस्टसेन-किएल के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने एक बिल्कुल नई तकनीक विकसित की है — नैनोबॉडी-आधारित एंटी-वेनम।
इस तकनीक में घोड़े के खून की बजाय विशेष “नैनोबॉडीज़” तैयार की जाती हैं — ये एंटीबॉडी के छोटे हिस्से हैं जो शरीर में तेज़ी से फैलते हैं, गहराई तक पहुंचते हैं और विषैले तत्वों को तुरंत निष्क्रिय कर देते हैं।
18 अफ्रीकी प्रजातियों पर कारगर
वैज्ञानिकों ने आठ चुनी हुई नैनोबॉडीज़ को मिलाकर एक ऐसा कॉकटेल एंटी-वेनम बनाया है जो 18 अफ्रीकी जहरीले साँपों के ज़हर पर असर करता है — जिनमें ब्लैक माम्बा, कोबरा और स्पिटिंग कोबरा जैसी घातक प्रजातियाँ शामिल हैं।
परीक्षणों में यह एंटी-वेनम 17 में से 18 साँपों के ज़हर को पूरी तरह निष्क्रिय करने में सफल रहा। केवल एक ग्रीन माम्बा की प्रजाति में आंशिक असर देखा गया।
नया एंटी-वेनम — ज्यादा असरदार, कम साइड इफेक्ट
यह नई तकनीक कई मायनों में पुराने तरीकों से आगे है:
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नैनोबॉडीज़ शरीर के ऊतकों में जल्दी पहुंचती हैं और गहराई तक असर करती हैं।
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देर से इलाज शुरू होने पर भी यह ऊतकों के नुकसान को रोक सकती है।
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गंभीर इम्यून रिएक्शन का खतरा बहुत कम है, जिससे इलाज जल्दी शुरू किया जा सकता है।
DTU Bioengineering के बयान में कहा गया है,
“यह एंटी-वेनम सिर्फ प्रभावी ही नहीं, बल्कि सुरक्षित भी है। इससे ज़हरीले काटने के तुरंत बाद इलाज शुरू किया जा सकता है, बिना किसी बड़े जोखिम के।”
वैश्विक प्रभाव
अफ्रीका में हर साल तीन लाख से ज्यादा लोग साँप के डसने का शिकार होते हैं। सात हजार से अधिक की मौत हो जाती है, जबकि दस हजार से ज्यादा लोग अंग कटवाने या स्थायी नुकसान झेलने पर मजबूर होते हैं।
अगर यह नया एंटी-वेनम क्लिनिकल ट्रायल्स में सफल रहा, तो न सिर्फ अफ्रीका बल्कि एशिया और दक्षिण अमेरिका में भी लाखों ज़िंदगियाँ बचाई जा सकती हैं।
शोधकर्ताओं का मानना है कि सही सहयोग और फंडिंग मिली तो 1-2 साल में क्लिनिकल ट्रायल शुरू हो सकते हैं और 3-4 साल में यह एंटी-वेनम बाजार में उपलब्ध हो सकता है।





